नरपतदान चारण
और दूसरी बात, कोई व्यक्ति किसी खास तरह की वेशभूषा पहनकर संत तो नहीं हो जाता। जो व्यक्ति अपने सुख, संपत्ति और अहंकार को छोड़कर परमात्मा की शरण में चला जाता है वह कैसे भी वस्त्र धारण करे, ईश्वर उसे स्वीकार कर लेते हैं। उस व्यक्ति ने फिर पूछा तो फिर आपका धर्म क्या है? गुरु नानक बोले मेरा धर्म है सत्य और ईमान का मार्ग। मैं एक पेड़ और धरती की तरह रहता हूं।नदी की तरह मुझे इस बात की चिंता नहीं रहती कि कोई मुझ पर फूल फेंकता है या कचरा।
नानक की यह बात शाश्वत है। युगानुरुप न जाने कितने लोग खास तरह की वेशभूषा पहनकर, दाढ़ी बढ़ाकर या सिर मुंडवाकर चंदा एकत्र कर धन संग्रह में लगे हैं और अपने आप को साधु और संत कहते हैं। दरअसल, एक व्यक्ति जो सत्य की खोज में निकल पड़ता है ,जो परोपकार और समाज कल्याण का कार्य करता है वह साधु और संत है।
कबीर कहते हैं कि जिसका कोई दुश्मन नहीं है, जिसकी कोई कामना नहीं है, जो ईश्वर और ईश्वर की सृष्टि से प्रेम करता है, विषय वासनाओं, माया मोह से दूर है वही संत है। संत या साधु होना त्याग की पहली शर्त पर माना जाता है। यथा, संत या साधु वही है जो धन, साधन, आभूषण और संग्रह से मुक्त हो।जिसमें माया का मोह नहीं है, जिसे दुनिया के सारे भौतिक सुख साधन मिथ्या लगते हैं,जो आत्मा से विरक्त और कामनाओं से रिक्त है, वही तो सच्चा संत है।
जिसने अपनी तमाम इच्छाओं को समाप्त कर दिया, दुष्प्रवृत्तियों को नष्ट कर दिया, इंद्रियों पर नियंत्रण किया और मन को अपने विवेक के अधीन कर लिया, वही संत है। वही हमारे समाज में पूजनीय, आदरणीय और गुरु समान है। लेकिन ऐसा होता कहां है? हम अपने आडंबरों को साथ लेकर परमात्मा के क्षेत्र में प्रवेश करना चाहते हैं और कहते हैं कि आप मुझे इसी रूप में स्वीकार करें। ये तो ठीक नहीं। यदि आप पवित्र नहीं तो परमात्मा और जनमानस आपको कैसे स्वीकार करेगा?
आपके जीवन में जब तक सत्य नहीं होगा, ईमान नहीं होगा, लालित्य नहीं होगा, प्रेम नहीं होगा, सुगंध और मुस्कान नहीं होगी, विश्वास नहीं होगा तब तक सारे के सारे कृत्य धरे रह जाएंगे। कबीर ने माया को साधु का सबसे बड़ा दुश्मन बताया है। कबीर कहते हैं झ्र‘कबीर माया पापणीं, हरि सूं करे हराम/मुखि कड़ियाली कुमति की, कहण न देई राम॥ अर्थात् यह माया बड़ी पापिन है।
यह परमात्मा से विमुख कर देती है तथा मुख पर दुर्बुद्धि की कुंडी लगा देती है और राम-नाम का जप नहीं करने देती। वहीं साधु की विशेषता बताते हुए कबीर कहते है कि ‘साधु भूखा भाव का, धन का भूखा नाहि/धन का भूखा जो फिरै सो तो साधु नाहि। लिहाजा, ध्यान रखें कि साधु यानी सत्य की साधना करने वाला, अच्छे गुणों को अपनाकर सत्य की खोज में निकल पड़ने वाला। साधु या संत किसी खास तरह के दिखावे, दर्शन या धन का मोहताज नहीं है। साधुता या संतत्व एक मौलिक गुण है, एक स्वभाव है।
साधु संतों का काम किसी धर्म, मत, संप्रदाय, विधि, परंपरा को थोपना भी नहीं हैं। इनका काम है लोगों की संकुचित विचारधारा को खत्म कर उन्हें समभाव में स्थित करना। ऐसे संतों का सान्निध्य सर्वजन हितकारी, सुखकारी और शांति प्रदाता होता है। सच्चे संत भोग-वासनाओं से विरत, धर्म-नीति के पालक, भगवान के सच्चे भक्त और नवनीत के समान कोमल हृदय होने के कारण दूसरों के दुखों से शीघ्र द्रवित हो जाते हैं। यथा, जीवन में सच्चे संत या साधू की पहचान कर लेना ही हितकर रहता है।
नोट: यहां दी गई जानकारी धार्मिक मान्यता और लोक मान्यता पर आधारित है। इसका कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं भी हो सकता। सामान्य हित और ज्ञान को ध्यान में रखते हुए यहां इसे प्रस्तुत किया जा रहा है।